Hindi Poetry | कविताएँ

पढ़ें सुधाम द्वारा लिखी कविताएँ। सुधाम के लेखन में श्रृंगार, करुणा, अधभुत आदि रसों का स्वाद सम्मिलित है।

  • Hindi Poetry | कविताएँ

    एक ऐसा यार

    Art: Rachel Coles
    न पूछे क्यों
     न सोचे कभी दो बार
     लड़ जाए भिड़ जाए
     सुन के बस एक पुकार
     रब करे सबको मिले
     बस एक ऐसा यार
     खाए जो बड़ी क़समें
     उठाए जो नख़रे हज़ार
     निभाए सारी वो रस्में
     झेलकर भी सितम करे प्यार
     दुआ है संग सदा मिले
     बस एक ऐसा यार
     पूरी करे जो तलब
     कश हो या जाम मिले तैयार
     महूरत मान ले फ़रमाइश को
     न दिन देखे न देखे वार
     जब मिले तेरे सा मिले
     बस एक ऐसा यार
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    साया

    Image may contain: tree, outdoor and nature, text that says "साया सुधाम २०२०"
    लिखने की चाहत तो बहुत है
    जाने क्यों कलम साथ नहीं
    जज़्बात सियाही से लिखे लफ़्ज़ नहीं
    मेरे बेलगाम बहते अश्क़ बयां कर रहें हैं
    
    अभी तो बैठे थे फ़िलहाल ही लगता है
    पलट गयी दुनिया कैसे ये मालूम नहीं
    जाने वाले की आहट भी सुनी नहीं
    सर पे से अचानक साया हठ गया है
    
    वो जो ज़ुबान पे आ के लौट गयी वो बातें बाक़ी है
    अब कहने का मौक़ा कभी मिलेगा नहीं
    हाय वक़्त रहते क्यों कहा नहीं
    कुछ दिन से ये सोच सताती है
    
    अल्फ़ाज़ बुनता हूँ मगर उधड़ जाते हैं
    ख़यालों जितना उन में वज़न नहीं
    डर भी है ये विरासत कहीं खोए नहीं
    मगर यक़ीन-ए-पासबाँ भी मज़बूत है
    
    लिखने की चाहत तो बहुत है
    जाने क्यों कलम साथ नहीं
    जज़्बात सियाही से लिखे लफ़्ज़ नहीं
    मेरे बेलगाम बहते अश्क़ बयां कर रहें हैं
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    रिश्ता-ए-उम्मीद

    उम्र भर निभे ऐसी ही दोस्ती हो
     कहाँ और किस किताब में लिखा है
     गरज़ और ग़ुरूर के बाटों के बीच
     हर रिश्ता कभी न कभी पिसा है
    
     कुछ कही तो अक्सर अनकही
     आदतों हरकतों का भी असर बड़ा है
     कहते एक दूसरे को लोग कम मगर
     ख़ुशहाल रिश्ते के आढ़े अरमान खड़ा है
    
     बुरी आदत है ये उम्मीद रखने की
     कमबख़्त कौन कभी इस पे खरा उतरा है
     आइने में खड़े शक्स को भी ज़रा टटोलो
     कौन सा वादा उसने भी कभी पूरा किया है
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    विश्वास का दीया

    खुली हवा है वो आज़ादी की
     शीतल करे जो जब मध्धम चले
    एक ओर जो हो हावी तो बने आँधी
     कैसे तूफ़ानों में कोई दीया जले
    
     अलगाव की चिंगारी कहीं दामन ना लगे
     मिल के बढ़ने के लिए दिल भी बड़े रखने होंगे
     दूर अभी हैं वो मंज़िलें जहाँ ख़ुशहाली मिले
     कटे तने से चलने से कैसे ये रास्ते तय होंगे
    
     इरादे नेक वही जो अमल में आएँ
     कथनी और करनी को अब मिलाना है
     तेरे मेरे के ये फ़ासले चलो मिल मिटाएँ
     विश्वास लेना देना नहीं कमाना है
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    फिर मिलते हैं

    कोई तो है जहाँ
     जिधर तू आबाद है
     इधर तो तेरी हँसी
     तेरी बातें तेरी याद है
     मिलते होंगे वहाँ पर भी
     सालगिरह के मुबारक तराने
     अपने भी मिल गए होंगे
     दोस्त कुछ नए पुराने
     जितनी हमको है आती
     तुम्हें भी तो आती होगी
     फ़िलहाल तो इतना यक़ीन है
     तुम से फिर मुलाक़ात होगी
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    कश्मीर

    रौनक़ लगाते रौशन गली गलियारे
     सजते थे सूखे चिनार के पत्ते सड़क किनारे
    
     बर्फ़ की सफ़ेद चादर ओढ़े होते सर्द सवेरे
     फ़िरन तले गरमी देते कांगड़ी के नर्म अंगारे
    
     सिराज बाग़ में सजे लाखों फूल वो प्यारे
     दल पे हौले सरकते छोटे बड़े सुंदर शिकारे
    
     हरी हरी वादी के यादगार लुभावने नज़ारे
     सैर सपाटे शांत बहते जहलम किनारे
    
     हुस्न जिसका हर मौसम अलग निखारे
     यूँ ही नहीं कहते थे इसे लोग जन्नत सारे
    
     फिर मौसम बदला गूँजने लगे नारे
     बिखरे अचानक ख़्वाब जो संवारे
    
     मुट्ठी भर की ज़िद ने हज़ारों मारे
     खेल खेलने लगे सियासतदाँ हमारे
    
     पहचान हमारी जो है हमें झमूरियत पुकारे
     ज़रूरी है के जब देश जीते कश्मीरियत ना हारे
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    एक किताब की कहानी

    क्या बेवजह बढ़ रहें हैं ये क़ाफ़िले
     कौन सी है वो मंज़िल चल पड़े जिस रास्ते
     कुछ तो होगा मसला-ए-जुनून
     छिड़ गया है इंक़लाब जिस के वास्ते
     कितना और रुकें के जब होगी वो सुबह
     छीनी आज़ादी जिस लिए फ़िरंगी हाथ से
     रंजिशें तो तब भी उबल के उभरी थीं
     क़ीमत तो चुकायी लेकिन क्या सीखा सरहदें बाँट के
     सिकती रही है बिकती भी रहेगी सियासी रोटी
     थकते नहीं ये ले ले कर भूखे मज़्लूमों के नाम
     बनती भी हैं और गिराई भी जाती हैं सरकारें
     आज़माती है हक़-ए-जम्हूरियत जब अवाम
     हर कोई कहे मैं सही हूँ और वो ग़लत
     फ़िर दूर दूर खड़े हैं लोग आईन लिए हाथ में
     देर आयेगी पर समझ आयेगी ये बात यक़ीनन
     पन्ने बस अलहदा हैं लेकिन हैं उसी किताब के