फ़िलहाल
कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है के ज़िंदगी के माइने बदल गए इतना बदला हुआ मेरा अक्स है लगता है जैसे आइने बदल गए अभी तो कारवाँ साथ था ज़िंदगी का जाने किस मोड़ रास्ते जुदा हो गए अब तो साथ है सिर्फ़ अपने साये का जो थे सर पर कभी वो अचानक उठ गए यूँ लगता जैसे किसी नई दौड़ का हिस्सा हूँ किरदार कुछ नए कुछ जाने पहचाने रह गए शुरूवात वही पर अंत नहीं एक नया सा क़िस्सा हूँ जोश भी है जुंबिश भी जाने क्यूँ मगर पैर थम गए एहसास एक भारी बोझ का है सर और काँधे पे भी पास दिखाई देते थे जो…
मास्क पहन लो ना यार…
A short poem a huge request! एक छोटी कविता एक बड़ी दर्ख़ास्त!
भारत गणतंत्र
मेरे देश का परचम आज लहरा तो रहा है लेकिन इर्द गिर्द घना कोहरा सा छा रहा है देश की हवाएं कुछ बदली सी हैं कभी गर्म कभी सर्द तो कभी सहमी सी हैं यूँ तो विश्व व्यवस्था में छोटी पर मेरा भारत जगमगा रहा है पर कहीं न कहीं सबका साथ सबका विकास के पथ पर डगमगा रहा है स्वेछा से खान पान और मनोरंजन का अधिकार कहीं ग़ुम हो गया है अब तो बच्चों का पाठशाला आना जाना भी खतरों से भरा है सहनशीलता मात्र एक विचार और चर्चा का विषय बन चला है गल्ली नुक्कड़ पर आज राष्ट्रवाद एक झंडे के नाम पर बिक रहा है क्या…
ये जो देश है मेरा…
कोई अच्छी खबर सुने तो मानो मुद्दत गुज़र गयी है लगता है सुर्खियां सुनाने वालों की तबियत कुछ बदल गयी है वहशियों और बुद्धीजीवियों में आजकल कुछ फरक दिखाई नहीं देता कोई इज़्ज़त लूट रहा है तो कोई इज़्ज़त लौटा रहा है बेवकूफियों को अनदेखा करने का रिवाज़ नामालूम कहाँ चला गया आलम ये है के समझदारों के घरों में बेवकूफों के नाम के क़सीदे पढ़े जा रहे हैं तालाब को गन्दा करने वाले लोग चंद ही हुआ करते हैं भले-बुरे, ज़रूरी और फज़ूल की समझ रखनेवाले को ही अकल्मन्द कहा करते हैं मौके के तवे पर खूब रोटियां सेंकी जा रहीं हैं कल के मशहूरों के अचानक उसूल जाग…
ड़ोर
उम्मीद की इक ड़ोर बांधे एक पतंग उड़ चली है कहते हैं लोग के अब की बार बदलाव की गर्म हवाएं पुरजोर चलीं हैं झूठ और हकीक़त का फैसला करने की तबीयत तो हर किसी में है कौन सच का है कातिल न-मालूम मुनसिब तो यहाँ सभी हैं सुर्र्खियों के पीछे भी एक नज़र लाज़िमी है गौर करें तो ड़ोर की दूसरी ओर हम सभी हैं अपने मुकद्दर के मालिक हम खुदी हैं
पहल
खुद से कुछ कम नाराज़ रहने लगा हूँ ऐब तो खूब गिन चुका खूबियाँ अपनी अब गिनने लगा हूँ मैं आजकल एक नयी सी धुन में लगा हूँ अपने ख्यालों को अल्फाजों में बुनने लगा हूँ मैं गैरों के नगमे गुनगुनाना छोड़ रहा हूँ अब बस अपने ही गीत लिखने चला हूँ मैं कुछ अपने से रंग तस्वीर में भरने लगा हूँ आम से अलग एक पहचान बनाने चला हूँ मैं अंजाम से बेफिक्र एक पहल करने चला हूँ अपने अन्दर की आवाज़ को ही अपना खुदा मानने लगा हूँ मैं खुद से कुछ कम नाराज़ रहने लगा हूँ
परिचय
आज धूल चटी किताबों के बीच ज़िन्दगी का एक भूला पन्ना मिल गया धुँधले से लफ़्ज़ों के बीच पहचाना सा एक चहरा खिल गया अलफ़ाज़ पुराने यकायक जाग उठे मानो सार नया कोई मिल गया दो पंक्तियों के चंद लमहों में एक पूरा का पूरा युग बीत गया आज धूल चटी किताबों के बीच मुझ को मैं ही मिल गया
नया साल
कल की बीती को भुला दो अपने रूठों को आज मना लो इस बरस दिन तो फिर उतने ही होंगे मौक़े शायद फिर उतने न और मिलेंगे चलेगा जब नया साल दिन हफ़्ते महीनों की चाल कुछ पहचाने तो नए कुछ मिलेंगे रिश्तों के रास्ते लय होगी उनकी कभी मद्धम कभी तेज़ कभी आहिस्ते ये गोला तो सूरज की परिक्रमा फिर करेगा सर्द गरम और वर्षा का दौर यूँ चिरकाल चलेगा हर बदलता साल अपने संग रिश्तों का जश्न है लाता बिन साथियों के मने तो कहाँ कोई मज़ा है आता अनमोल हैं रिश्ते बस उन्ही को रखना है सम्भाल के कौन जाने साथ कितनों का और कितना और मिलेगा
मौक़ा
क्यों परेशान से दिखते हैं लोग हर तरफ़ आख़िर है क्या इस बेचैनी का सबब इतनी दुनिया में दुनिया से नाराज़गी क्यों है भला छोटी छोटी बातों पे क्यों ख़ून उबलने है चला तेरे मेरे का फ़ासला तो पहले भी कम न था मगर इतनी नफ़रत ऐसा रंज-ओ-ग़म न था कुछ तो होगा इलाज कोई तो होगी दवा मिल के फूकेंगे तो शायद चलेगी बदलेगी हवा कहाँ इतिहास में सियासतदारों ने अमन की राह चुनी है एहतराम और मोहब्बत के धागों ने इस देश की चादर बुनी है निकलेगी आवाम घर से तो कुछ तो हालात बदल पायेंगे वरना यूँ बोलते बोलते तो फिर से पाँच साल बीत जायेंगे