ये जो देश है मेरा…

कोई अच्छी खबर सुने तो मानो मुद्दत गुज़र गयी है
 लगता है सुर्खियां सुनाने वालों की तबियत कुछ बदल गयी है

 वहशियों और बुद्धीजीवियों में आजकल कुछ फरक दिखाई नहीं देता
 कोई इज़्ज़त लूट रहा है तो कोई इज़्ज़त लौटा रहा है

 बेवकूफियों को अनदेखा करने का रिवाज़ नामालूम कहाँ चला गया
 आलम ये है के समझदारों के घरों में बेवकूफों के नाम के क़सीदे पढ़े जा रहे हैं

 तालाब को गन्दा करने वाले लोग चंद ही हुआ करते हैं
 भले-बुरे, ज़रूरी और फज़ूल की समझ रखनेवाले को ही अकल्मन्द कहा करते हैं

 मौके के तवे पर खूब रोटियां सेंकी जा रहीं हैं
 कल के मशहूरों के अचानक उसूल जाग उठें हैं

 देश किसका है और किसका ख़ुदा
 ईमान और वतनपरस्ती के आज लोग पैमाने जाँच रहे हैं

 मैं तो अधना सा कवि हूँ बात मुझे सिर्फ इतनी सी कहनी है
 क्यों न कागज़ पे उतारें लफ़्ज़ों में बहाएँ  सियाही जितनी भी बहानी है

 फर्क जितने हों चाहे जम्हूरियत को हम पहले रखें
 आवाम की ताक़त पे भरोसा कायम रखें

 किये का सिला आज नहीं तो कल सब को मिलेगा
 सम्मान लौटाने से रोटी कपडा या माकन किसी को न मिलेगा