• Hindi Poetry | कविताएँ

    भारत गणतंत्र

    मेरे देश का परचम आज लहरा तो रहा है 
     लेकिन इर्द गिर्द घना कोहरा सा छा रहा है 
    
    देश की हवाएं कुछ बदली सी हैं 
     कभी गर्म कभी सर्द तो कभी सहमी सी हैं 
    
     यूँ तो विश्व व्यवस्था में छोटी पर मेरा भारत जगमगा रहा है 
     पर कहीं न कहीं सबका साथ सबका विकास के पथ पर डगमगा रहा है 
     
    स्वेछा से खान पान और मनोरंजन का अधिकार कहीं ग़ुम हो गया है 
     अब तो बच्चों का पाठशाला आना जाना भी खतरों से भरा है 
    
     सहनशीलता मात्र एक विचार और चर्चा का विषय बन चला है 
     गल्ली नुक्कड़ पर आज राष्ट्रवाद एक झंडे के नाम पर बिक रहा है 
     
    क्या मुठ्ठी भर लोगों की ज़िद को लिए मेरा देश अड़ा है 
     क्यों हो की एक भी नागरिक आज इस गणतंत्र में लाचार खड़ा है 
     
    मेरे देश का परचम आज लहरा तो रहा है 
     लेकिन इर्द गिर्द घना कोहरा सा छा रहा है
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    ये जो देश है मेरा…

    कोई अच्छी खबर सुने तो मानो मुद्दत गुज़र गयी है
     लगता है सुर्खियां सुनाने वालों की तबियत कुछ बदल गयी है
    
     वहशियों और बुद्धीजीवियों में आजकल कुछ फरक दिखाई नहीं देता
     कोई इज़्ज़त लूट रहा है तो कोई इज़्ज़त लौटा रहा है
    
     बेवकूफियों को अनदेखा करने का रिवाज़ नामालूम कहाँ चला गया
     आलम ये है के समझदारों के घरों में बेवकूफों के नाम के क़सीदे पढ़े जा रहे हैं
    
     तालाब को गन्दा करने वाले लोग चंद ही हुआ करते हैं
     भले-बुरे, ज़रूरी और फज़ूल की समझ रखनेवाले को ही अकल्मन्द कहा करते हैं
    
     मौके के तवे पर खूब रोटियां सेंकी जा रहीं हैं
     कल के मशहूरों के अचानक उसूल जाग उठें हैं
    
     देश किसका है और किसका ख़ुदा
     ईमान और वतनपरस्ती के आज लोग पैमाने जाँच रहे हैं
    
     मैं तो अधना सा कवि हूँ बात मुझे सिर्फ इतनी सी कहनी है
     क्यों न कागज़ पे उतारें लफ़्ज़ों में बहाएँ  सियाही जितनी भी बहानी है
    
     फर्क जितने हों चाहे जम्हूरियत को हम पहले रखें
     आवाम की ताक़त पे भरोसा कायम रखें
    
     किये का सिला आज नहीं तो कल सब को मिलेगा
     सम्मान लौटाने से रोटी कपडा या माकन किसी को न मिलेगा
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    ड़ोर

    उम्मीद की इक ड़ोर बांधे एक पतंग उड़ चली है
     कहते हैं लोग के अब की बार
     बदलाव की गर्म हवाएं पुरजोर चलीं हैं
     झूठ और हकीक़त का फैसला करने की तबीयत तो हर किसी में है
     कौन सच का है कातिल न-मालूम मुनसिब तो यहाँ सभी हैं
     सुर्र्खियों के पीछे भी एक नज़र लाज़िमी है
     गौर करें तो ड़ोर की दूसरी ओर हम सभी हैं
     अपने मुकद्दर के मालिक हम खुदी हैं
  • Hindi Poetry | कविताएँ

    एक शहर था…

    एक शहर था प्यारा फ़ूलों का
     महका करती थी हर गली जिसकी
     दिल दरिया हुआ करता था उसके लोगों का
     समाते थे जिस में विभिन्न जाति प्रांत के लोग सभी
    
     फिरते थे जब गली बाज़ारों में
     अनेकों बोलियां श्रवण में आती थी
     पोंगल दशहरा हब्बा ईद त्योहारों पर
     गलियां एक सी सजती थी
    
     फिर एक दिन सब कुछ बदल गया
     सिक्का मतलबपरस्ती का मानो ऐसा चल गया
     काम छोड़कर नामों मे पहचान हर किसी की ढूंढी गई
     पानी ने आग लगा डाली पहले जो बुझाया करती थी
    
     जल रहा वो शहर फूलों का
     दहक रही हैं गलियां अब उसकी
     तांडव हिंसा का चल रहा
     कौन सुन रहा गुहार उसकी
    
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    बटवारा

    मेरे देश का फिर बटवारा हो रहा है 
     सैंतालीस में मुद्दा ज़मीन थी 
     आज कल जंग है यकीन की 
     इक अंधा सा जोश सर पानी हो चला है
     
     आज की अदालत प्रचार माध्यम हैं 
     जूरी जन्ता और हर घर अदालत है 
     अपने यकीं को लिए हर शक़्स 
     कटघरे के दोनों तरफ खड़ा है
     
     आज़ादी बोलने की पुरज़ोर आज़मातें हैं 
     शब्दों के वार का अजब सिलसिला है 
     बोल-चाल में सब्र कहीं ग़ुम हो गया है 
     दो बाटन के बीच मेरा मुल्क पिस रहा है 
    
     ख़ेमे बटे हुए हैं रंगों के चहुँ ओर 
     कहीं भगुआ तो कहीं हरे की लग रही है होड़ 
    बिना मंज़िल की लगी दौड़ है 
     मेरे देश का फिर बटवारा हो रहा है